श्री गणपति अथर्वशीर्षम् हिन्दी अर्थ और पाठ। Powerful Ganapati Atharvashirsha meaning in Hindi

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् हिन्दी अर्थ और पाठ। Powerful Ganapati Atharvashirsha meaning in Hindi

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् हिन्दी अर्थ और पाठ। Ganapati Atharvashirsha meaning in Hindi

भगवान गणेश हिंदू धर्म में सबसे सम्मानित और पूजे जाने वाले देवताओं में से एक हैं, और उन्हें बाधाओं का निवारण करने वाला माना जाता है। सफल परिणाम के लिए उनका आशीर्वाद लेने के संकेत के रूप में, किसी भी नए उद्यम या कार्य को शुरू करने से पहले अक्सर उनसे प्रार्थना की जाती है। भगवान गणेश की पूजा में मंत्र जाप, फूल और मिठाई चढ़ाना, दीपक जलाना और बहुत कुछ शामिल है। भगवान गणेश की पूजा करके हम उनका मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि हम सफलता की ओर अपनी यात्रा शुरू करते हैं।

अथर्वशीर्षम् एक संस्कृत ग्रन्थ है जिसके बारे में माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति लगभग 1000 ईसा पूर्व वैदिक काल में हुई थी। यह अथर्ववेद के छंदों से बना है और सबसे महत्वपूर्ण उपनिषदों में से एक है। पाठ को श्री अथर्वशीर्ष, अथर्व ऋषि प्रश्न और प्रश्न उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है। इसमें 112 मंत्र या छंद शामिल हैं जो ब्रह्म के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हैं – पूर्ण वास्तविकता। पाठ मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करने के लिए ध्यान और ज्ञान (आध्यात्मिक ज्ञान) के महत्व को रेखांकित करता है।

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् एक हिंदू भक्ति स्तोत्र है जो भगवान गणेश को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना अथर्व ऋषि ने की थी। इसमें 16 श्लोक (श्लोक) हैं और देवता के विभिन्न गुणों और शक्तियों के लिए उनकी स्तुति की जाती है। पाठ गणपति उपनिषद का एक हिस्सा है, जो अथर्ववेद में सन्निहित है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र का जाप करने से जीवन में समृद्धि, सौभाग्य और सफलता की प्राप्ति होती है।

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् और उसका हिन्दी अर्थ या अनुवाद

Contents

नीचे हम आपको श्री गणपति अथर्वशीर्षम् के मूल पाठ एवं उसके हिन्दी अनुवाद से अवगत कराते हैं। श्री गणपति अथर्वशीर्षम् में कुल 16 श्लोक हैं। हमने हर श्लोक का अनुवाद अलग से किया है जिससे पढ़ने वाले को ज्यादा लाभ मिले।

पहला श्लोक

श्री गणपति अथर्वशीर्ष
मंगलकारी आहे श्री गणपति अथर्वशीर्ष
गणपति अथर्वशीर्ष
ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि
त्वमेव केवलं कर्ताऽ सि
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।

अर्थ

भगवान गणपति को नमन है। हे गणपती! तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। केवल तुम ही कर्ता हो। केवल तुम ही धर्ता हो। केवल तुम ही हर्ता हो। निश्चयपूर्वक तुम ही इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।

दूसरा श्लोक

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

अर्थ

ज्ञान की बात कहता हूँ और सत्य कहता हूँ

तीसरा श्लोक

अव त्व मां। अव वक्तारं।
अव श्रोतारं। अव दातारं।
अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।
अव पश्चातात। अव पुरस्तात।
अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।
अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो माँ पाहि-पाहि समंतात्।।3।।

अर्थ

हे पार्वती के पुत्र! तुम शिष्य की रक्षा करो। तुम गुरु की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। पश्चिम से रक्षा करो। पूर्व से रक्षा करो। उत्तर से रक्षा करो। दक्षिण से रक्षा करो। समस्त दिशाओं से मेरी रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे से रक्षा करो। सब ओर से मेरी रक्षा करो। चारों ओर से मेरी रक्षा करो। समस्त जन की रक्षा करो।

चौथा श्लोक

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽषि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माषि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽषि।।4।।

अर्थ

तुम चिन्मय हो, तुम ही आनन्द हो, तुम ही ब्रह्म ज्ञानी हो, तुम ही सच्चिदानंद हो, तुम अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम दानमय हो तुम विज्ञानमय हो।

पाँचवाँ श्लोक

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।
त्वं चत्वारिकाकूपदानि।।5।।

अर्थ

इस पूरे जगत का उत्पत्ति स्त्रोत तुम हो, इस जगत को तुमसे लय प्राप्त होती है। सारे जग के तुम रक्षक हो। तुममें सम्पूर्ण संसार निहित है। तुम चारों दिशाओं में हर तरफ हो। तुम ही जल हो, तुम ही भूमि हो, तुम ही अग्नि हो, तुम ही वायु हो और तुम ही आकाश हो। तुम सब कुछ हो।

छठवाँ श्लोक

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।

अर्थ

तुम सत्व, तम और रज इन तीनों गुणों से परे अर्थात दूर हो। तुम जाग्रत (जागने की अवस्था), गहरी निद्रा की अवस्था एवं स्वप्नवस्था से परे अर्थात दूर हो। तुम देह के तीनों रूप – सूक्ष्म, स्थूल एवं वर्तमान से परे हो। तुम तीनों कालों – भूत, वर्तमान एवं भविष्य से परे हो। तुम इस जीवन के मूल आधार चक्र के केंद्र में विराजमान हो। तुम ही इच्छा हो, तुम ही क्रिया हो और तुम ही ज्ञान हो। परम गुरु और तपस्वी तुम्हारा ही ध्यान करते हैं। तुम ही ब्रह्म हो, तुम ही विष्णु हो तुम ही शिव हो (रुद्र हो), तुम ही इन्द्र हो, तुम ही अग्नि हो, तुम ही वायु हो, तुम ही चंद्रमा हो, तुम ही सूर्य हो। तुम गुण, सगुण एवं निर्गुण का समावेश हो।

सातवाँ श्लोक

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।
अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।
तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।
गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं।
नाद: संधानं। सँ हितासंधि:
सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:
निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

अर्थ

पहले “गण” का माने “ग्” का उच्चारण करें। तत्पश्चात आदि वर्ण अर्थात ‘अ’ का उच्चारण करें। तत्पश्चात अनुस्वार का उच्चारण करें। ॐकार या ओंकार का उच्चारण करें। तत्पश्चात महामंत्र – ॐ गं गणपतये नम: का जाप करें।

आठवां श्लोक

एकदंताय विद्‍महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

अर्थ

हम तुमको एकदंत के रूप में जानते एवं मानते हैं। हम तुम्हारा वक्रतुंड के रूप में ध्यान करते हैं। हमें इस सद्मार्ग पर चलने की गणपती प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान करे।

नौवां श्लोक

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

अर्थ

भगवान गणपती की चार भुजायें हैं। इन भुजाओं में वो पाश, एक अंकुश, एक शंख रखते हैं। एक भुज वो आशीर्वाद या वरदान की मुद्रा में रखते हैं। उनके ध्वज पर मूषक का चिन्ह बना है। वह चंदन का लेप लगाए लाल वस्त्रों एवं लाल पुष्पों का धारण करते हैं। वह लंबोदर हैं एवं उनके कर्ण सूप जैसे बड़े बड़े हैं। गणपती सभी की मनोकामना पूरी करते हैं। वह सर्वव्यापी हैं। वह इस सृष्टि के जनक एवं रचयता हैं। जो भी श्रीगणेश का सच्चे हृदय से नित्य ध्यान करता है वो सबमें सर्वश्रेष्ठ योगी अर्थात महायोगी है।

दसवां श्लोक

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

अर्थ

देवों के समूह को व्रात कहते हैं। उनके नायक गणपती को नमन। शिव के गणों के नायक प्रथम पति को नमन। शिव पुत्र को, लंबोदर को, एकदंत को और वरदमूर्ति (गणपती का एक नाम) को नमन।

ग्यारहवाँ श्लोक

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।
स सर्वत: सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

अर्थ

गणपति अथर्वशीर्षम् अथर्ववेद का एक उपनिषद है और जो भी इसका नित्य पाठ करता है वो परम ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त कर लेता है। वो विघ्नों की बाधा से मुक्त हो जाता है एवं सर्व सुख पाता है। जो इस अथर्वशीर्ष का पाठ करता है वो नरक में गिराने वाले समस्त प्रकारों के पाँच पातकों एवं उनके उप पातकों से मुक्त हो जाता है।

बारहवाँ श्लोक

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

अर्थ

यह मंत्र पापों का नाश करता है। जो इसका पाठ सांयकाल को करता है उसके दिन भर किए हुए पाप नष्ट होते हैं। जो इसका पाठ प्रातःकाल करता है उसके रात्रि के पापों का नाश होता है। इस तरह इस मंत्र का दोनों समय पाठ करने से पूरी तरह निष्पाप को सकते हैं। यह मंत्र समक्ष विघ्नों को हरता है, यह मंत्र मोक्ष, अर्थ, काम, क्रोध, पर विजय प्राप्त करता है।

तेरहवाँ श्लोक

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

अर्थ

इस गणपति अथर्वशीर्षम् मंत्र को शिष्य के अलावा किसी और को नहीं देना चाहिए। इसे मोह में किसी को नहीं देना चाहिए। जो मोह से देता है वो पापी हो जाता है। इस मंत्र का सहस्त्र (हजार) बार अनुस्मरण करने से मनोकामना सिद्ध होती है।

चौदहवाँ श्लोक

अनेन गणपतिमभिषिंचति
स वाग्मी भवति
चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति
स विद्यावान भवति।
इत्यथर्वणवाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्
न बिभेति कदाचनेति।।14।।

अर्थ

गणपति अथर्वशीर्षम् का पाठ कर, गणपती की आराधना कर जो भी गणपती को स्नान कराता है वह विद्वान हो जाता है। चतुर्थी के दिन व्रत रख कर इसका जाप करने से विद्वता की प्राप्ति होती है। जो अथर्व मंत्र है और परम ब्रह्म का आवरण है। इस मंत्र का उच्चारण करने से भय निकट नहीं आता।

पंद्रहवाँ श्लोक

यो दूर्वांकुरैंर्यजति
स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति
स मेधावान भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति
स वाञ्छित फलमवाप्रोति।
य: साज्यसमिद्भिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

अर्थ

जो व्यक्ति दूर्वा के अंकुरों से भगवान गणपति का यज्ञ करता है वो कुबेर जैसा धन धान्य मयी हो जाता है। जो व्यक्ति लाजो अर्थात लाई से यज्ञ करता हो वो यशस्वी एवं विद्वान होता है। जो सहस्त्र अर्थात एक हजार मोदक से आहुति देता है वो मनोवांछित फल की प्राप्ति करता है। जो व्यक्ति इन सब के साथ यज्ञ में आहुति करता है उसे सब कुछ प्राप्त होता है।

सोलहवां श्लोक

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

अर्थ

जो आठ ब्राह्मणों को इस गणपति अथर्वशीर्षम् का ज्ञान बांटता है वो व्यक्ति सूर्य की समान तेजस्वी हो जाता है। इस मंत्र का पाठ नदी के घाट पर अपने इष्ट देव को याद कर के करने पर परम सिद्धि की प्राप्ति होती है। यह एक ऐसा परम मंत्र है जिसका जाप करने से जीवन की मुसीबतें जाती हैं, ज्ञान वर्धन होता है एवं विद्वता की प्राप्ति होती है।

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् पाठ के लाभ

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् एक शक्तिशाली और लोकप्रिय हिंदू मंत्र है, जो बाधाओं को दूर करने वाले भगवान गणेश से आशीर्वाद पाने के लिए पढ़ा जाता है। इस मंत्र के जाप से कई लाभ होते हैं- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। यह मन को शांत करने और तनाव को कम करने, एकाग्रता और ध्यान में सुधार करने, सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाने, जीवन में प्रचुरता को आकर्षित करने और नकारात्मक ऊर्जाओं से सुरक्षा प्रदान करने में मदद करता है। यह किसी के विचारों को शुद्ध करने और समृद्धि बढ़ाने में भी मदद करता है। इस मंत्र का जाप हिंदू रीति-रिवाजों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और ऐसा माना जाता है कि यह सौभाग्य, स्वास्थ्य, धन और सफलता ला सकता है।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष का महत्व

श्री गणपति अथर्वशीर्ष मंत्रों या भजनों का एक संग्रह है, जिसे प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य का हिस्सा माना जाता है। यह भगवान गणेश की पूजा के लिए समर्पित सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक माना जाता है। माना जाता है कि इस पाठ की रचना अथर्व ऋषि नामक एक ऋषि ने की थी, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें स्वयं भगवान गणेश ने दिव्य ज्ञान प्रदान किया था।

गणपति अथर्वशीर्ष कई कारणों से हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सबसे पहले, यह मंत्रों का एक संग्रह है जिसके बारे में माना जाता है कि यह भगवान गणेश के आशीर्वाद और सुरक्षा का आह्वान करता है। कहा जाता है कि इन मंत्रों में सफलता, समृद्धि, स्वास्थ्य और भलाई की सामान्य भावना लाने की शक्ति होती है, जो उन्हें भक्ति और विश्वास के साथ पढ़ते हैं। दूसरे, माना जाता है कि पाठ में गणेश की शक्ति को दूर करने का रहस्य निहित है।

गणपति अथर्वशीर्ष एक प्राचीन संस्कृत पाठ है जो छंदों से बना है जो हिंदू भगवान गणेश को संबोधित करता है। ऐसा माना जाता है कि यह पाठ वैदिक साहित्य की अवधि के दौरान लिखा गया था, और आज भी गणेश के भक्तों द्वारा इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। गणपति अथर्वशीर्ष गहरी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और इसे चाहने वालों के लिए भगवान गणेश की दिव्य शक्ति तक पहुंच प्रदान करता है। यह कई आध्यात्मिक प्रथाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और अपने अनुयायियों के लिए शक्ति और मार्गदर्शन के स्रोत के रूप में कार्य करता है।

श्री गणपति अथर्वशीर्षम् संस्कृत डाउनलोड करें PDF Download

हम आपके लिए इस पुण्य मंत्र को pdf फ़ॉर्म में उपलब्ध करा रहे हैं। इसे डाउनलोड करें इसका जाप करें और अपने परिजनों के साथ शेयर करें।

FAQ

श्री गणपति अथर्वशीर्ष क्या है?

श्री गणपति अथर्वशीर्ष (गणपति उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है) भगवान गणेश को समर्पित एक महत्वपूर्ण हिंदू भक्ति ग्रंथ है। यह अथर्ववेद का हिस्सा है, जो चार वेदों में से चौथा है, और हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। गणपति अथर्वशीर्ष को गणपति उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह उपनिषदों में से एक है, जो दार्शनिक ग्रंथ हैं जो परम वास्तविकता पर चर्चा करते हैं और ब्रह्मांड के सर्वोच्च सत्य को प्रकट करने का लक्ष्य रखते हैं।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष की रचना किसने की थी?

ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना ऋषि अथर्व ने की थी और माना जाता है कि इसे 1000 वर्ष ईसा पूर्व में लिखा गया था।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष की रचना किस भाषा में की गई थी?

ये ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है

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